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शूद्र-चेतना की विसंगतियाँ

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“शूद्र चेतना की विशांगतियाँ” एक सजीव अनुसंधान और सूक्ष्म विश्लेषण के माध्यम से शूद्र समुदाय की सदियों पुरानी यात्रा को उजागर करती है, उनकी समाज से बाहरीकरण से शक्तिकरण की दिशा में। विद्यानंद सामाजिक-राजनीतिक विकास, धार्मिक सुधार, और बुनियादी स्तर पर चलने वाले आंदोलनों का पता लगाते हैं, जिनका शूद्र चेतना के जागरण और उनके अधिकारों और मानवता के दावे के लिए योगदान हुआ।

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शूद्र-चेतना की वि...
Published: 7th May'24
Author: Divyanand

प्राक्कथन

विश्व की समस्त सभ्यताओं की सामाजिक व्यवस्था में स्तरीकरण किसी न किसी रूप में सदैव विद्यमान रहा है। भारतीय समाज भी इसके प्रभाव से विरत नहीं है। यहाँ भी समाज का विभाजन उच्च एवं निम्न स्तरों पर रहा है। इस तरह की जाति-व्यवस्था केवल भारतीय समाज में पायी जाती हैं इसके आधार पर हिन्दू समाज अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभक्त रहा हैं, जिसमें शूद्र समाज की स्थिति काफी निम्नतम् रही है।

भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार द्वारा सदियों से उपेक्षित एवं शोषित दलित वर्ग के कल्याण एवं विकास हेतु अनेक योजनाएँ क्रियान्वित की गईं परन्तु एक लोककल्याणकारी राज्य के लिए यह सोचनीय विषय है कि इतने शासकीय व गैर शासकीय प्रयास व योजनाएँ लागू करने के बाद भी उनकी दशा में बदलाव क्यों नहीं हो पा रहा है? दलित वर्ग की चिन्ताजनक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक स्थिति में कहाँ तक सुधार हुआ है और यदि सुधार हुआ है तो इसके परिणामस्वरूप इनके विचार व जीवन प्रतिमान में क्या परिवर्तन आए हैं तथा उनका भविष्य क्या है?

हिन्दू धर्म में एक तरफ प्राणी मात्र के लिए स्नेह, दया, त्याग, सहानुभूति एवं परोपकार जैसे भाव का महत्व है। वहीं दूसरी ओर मानव-मानव के बीच उच्चता-निम्नता, भेदभाव एवं अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुरीतियाँ व्याप्त हैं। इस पक्षपात पूर्ण व्यवस्था के कारण शुद्र समाज को हजारों वर्षों से अमानवीय जीवन व्यतीत करना पड़ा। इनके ऊपर अनेक प्रकार की सामाजिक एवं धार्मिक निर्योग्यताएँ लाद दी गयीं। जिसके कारण ये जातियाँ वंचित एवं अपमानित जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो गयीं।

भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् सरकारी एवं गैरसरकारी संगठनों व संस्थाओं के प्रयास के फलस्वरूप दलित एवं पिछड़े समाज के सदस्यों का जीवन-स्तर एवं दशा प्रगतिशील एवं विकासोन्मुख है। आज इस समाज की युवा पीढ़ी के विचार व जीवन प्रतिमानों में गतिशीलता व परिवर्तनशीलता स्पष्टतः परिलक्षित हो रही है। अनेक शासकीय योजनाओं के फलस्वरूप उन्हें शिक्षित होने का अवसर प्राप्त हुआ है। आज उनमें अपनी स्थिति एवं अधिकारों के प्रति जागरूकता का विकास हुआ है। राजनैतिक क्षेत्र में मिले आरक्षण की वजह से उन्हें अपनी राजनैतिक शक्ति का भी आभास है। इन समस्त परिवर्तित परिस्थितियों ने उनमें वैचारिक चेतना का संचार किया है। लेकिन इन सारे बदलावों के बावजूद आज भी समाज की अगड़ी जातियों की सोच में कोई बदलाव न होने के कारण इनकी दशा में सुधार नहीं हो पा रहा है। सरकार द्वारा बनाये विभिन्न नियम, योजनाएँ एवं कानूनी प्रावधान निष्प्रभावी सिद्ध हो रहे हैं। प्रजातंत्र के जो अंग विधि के आधार पर संस्थाओं की स्थापना करने के लिए उत्तरदायी हैं, उनमें उस बोध की कमी है जो मानव के अधिकार के हनन से मुक्त समाज की स्थापना हेतु आवश्यक है।

भारत में संविधान द्वारा नागरिकों को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक आधारों पर अनेक अधिकार प्रदान किये गये हैं। भारतीय नागरिकों द्वारा अपने आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक कर्तव्यों का पूर्ण रूप से पालन न करने की प्रवृत्ति ने ही मानवाधिकारों के सम्मान तथा सुरक्षा को शोषण एवं दमन में बदल दिया है। दलित एवं पिछड़ी जातियों के साथ हो रहे अत्याचारों ने हमारी संस्कृति की गरिमा पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। वहीं सवर्ण समाज को विशेषाधिकार देने के क्रम में समूचे तंत्र का तत्पर हो जाने की प्रवृत्ति भारतीय समाज की विद्रूपता की परिचायक है। यह क्रम तब तक जारी रहेगा जब तक दलित एवं पिछड़े वर्ग सचेत नहीं हो जाएँगे।

 

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मनुवाद : बुनियाद, विकास और विनाश”शूद्र चेतना की विशांगतियाँ” जिसके लेखक विद्यानंद है, भारतीय समाज में शूद्र चेतना के विकास और मुक्ति का एक उद्घाटनकारी अन्वेषण है। इस प्रकाशमय पुस्तक में, विद्यानंद सावधानी से जांचते हैं इतिहासिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक कारकों को जो शूद्र समुदाय की पहचान और आकांक्षाओं को आकार देने में सहायक होते हैं।

 

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