दो शब्द
मैं इस योग्य नहीं कि किसी पुस्तक की प्रस्तावना लिख सकूँ। फिर भी यह दुस्साहस कर पाया। इसका मूल कारण है भारतीय संस्कृति के प्रखर ज्ञाता मि. हेरास। वे कहते हैं- "आप किताब न लिख सकें और आपको प्रस्तावना लिखने का मौका मिल जाए तो छोड़ना नहीं, क्योंकि लेखक के साथ आपका नाम भी पाठक पढ़ते हैं।" वैसे भी शिव पूजा के वक्त नन्दि पर भी दो-चार पुष्प गिर ही जाते हैं।
अन्तिम वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में, प्रारम्भिक शिक्षा पर अधिक विचार-विमर्श हुआ है। प्राथमिक शिक्षा का प्रथम चरण ही नहीं है वरन् बच्चे की प्रतिभा एवं व्यक्तित्व के विकास की नींव भी है परन्तु इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक दौर में भी हम इस ओर ध्यान नहीं दे पाये हैं। लेखिका ने इस पुस्तक के जरिये कुछ ठोस विचार रखे हैं।
प्रारम्भ में ही लेखिका ने विशिष्ट उदाहरण से अपनी बात रखी है। उनके शब्दों में ही देखें- "दुनिया के सबसे होशियार स्वयंभू पशु की बातें कुत्ते तक समझ लेते हैं एवं उनके अनुसार आचरण करते हैं परन्तु क्या एक भी मनुष्य कुत्ते की बात समझ पाता है?" शिक्षक की बात बच्चे समझ लेते हैं, पर क्या बच्चों की बात शिक्षक समझ पाते है?
लेखिका ने अपने विचारों को 'दशा', 'दिशा' एवं भाषा जैसे
तीन विभागों में बाँटा दिया है। प्राथमिक विद्यालय के तीन स्तर स्पष्ट किये हैं। शासन, इसाई मिशनरियों एवं पब्लिक प्राइमरी विद्यालय। प्रथम स्तर के विद्यालयों एवं उसके शिक्षकों का अध्ययन कार्य चर्चा का विषय है तो इसाई मिशनरियों द्वारा संचालित विद्यालयों की शिक्षा संदेहपरक है। सेण्टफ्रांसिस, सेंट जान्स जैसे पात्र हमारे समाज से कोसो दूर होने के बावजूद भी रखे गये हैं। शिक्षा साध्य है उसे धर्म-स्थापना का साधन बना दिया जाये यह गलत है। हमारी संस्कृति, धर्म एवं आचार-विचार के अनुरूप शिक्षा देनी चाहिए।
मिशनरीज के द्वारा संचालित स्कूलों में शिक्षा पाने वाला विद्यार्थी कैसा होगा? खुद लेखिका के शब्दों में "क्या आज का कान्वेण्ट शिक्षित मंगल पाण्डेय सिर्फ इस बात के लिए बगावत करेगा कि दाँत से खींचकर चलाई जाने वाली रायफल में जो चीज दाँत से खीचनी है, वह गी माता की चर्बी से निर्मित है या कान्वेण्ट शिक्षित अशफाकउल्लाह खान सूअर की चर्बी के प्रयोग से उत्तेजित होकर एसेम्बली में बम फेकेगा?
मिशनरिज शिक्षा व्यवस्था, उसमें अध्यापन कर रहे शिक्षक एवं स्कूल के बहुविध कार्यक्रमों के मूल कहाँ है? लेखिका ने इस पर गहरी चिंता व्यक्त की है। इन विद्यालयों की प्रवृतियों से हमारी संस्कृति एवं महापुरुषों की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिद्य लग जाता है ?
तीसरी व्यवस्था के विद्यालय दिशाविहीन हैं। वे या तो शासन द्वारा संचालित विद्यालयों का अनुसरण करते हैं या इसाई मिशनरियों द्वारा संचालित विद्यालयों का। इन विद्यालयों का उद्देश्य शिक्षा नहीं, केवल धनोपार्जन है। इन विद्यालयों में शिक्षक की भूमिका निभा रहे युवक उच्च शिक्षित हैं, पर वे उसका निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं। लेखिका ने वर्तमान प्राथमिक शिक्षा की अवदशा का विस्तृत आलेखन कर दिशा संकेत किया है।
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