प्राक्कथन
मनुष्य का व्यवहार उसकी भावनाओं द्वारा निधर्धारित होता है। सामान्यतया जिस मनुष्व की भावनाएँ जिस प्रकार की होंगी, उसका व्यवहार भी उसी के अनुरूप होगा। ये भावनाएँ मनुष्य की मान्यताएँ निर्मित करती हैं। ननुष्य की जो भी मान्यताएँ होंगी उसकी भावनाएँ भी उसी के अनुरूप होगी। मान्यताओं के विकसित होने में काफी समय लगता है। जब कोई धात मान्यता का रूप ले लेती है तो उसके टूटने में काफी समय लगता है, अधिकांशतः ये जीवनपर्यन्त बनी रहती हैं। जब एक मान्यता कई हजार बार गलत सिद्ध होती हैं तब कहीं जाकर वह टूटती है। जबकि मान्यताएँ बनती बहुत जल्दी है। माता-पिता की बातें, परिजनों का व्यवहार, पालन-पोषण का भौगालिक क्षेत्र, स्थानीय समाज, स्थानीय पर्व-त्योहार इत्यादि के प्रभाव से मान्यताएँ स्वतः ही गनुष्य के मन में स्थापित ये जाती हैं जो अधिकांशतः मनुष्य के व्यवहार में परिलष्ठित होती है।
मान्यताएँ व्यक्ति की भावनाओं की जननी होती है। जिस व्यक्ति की जितनी भी स्थापित मान्यताएँ हैं उन्हीं मान्यताओं का समुच्य उस व्यक्ति की भावनाएँ होती हैं। अर्थात भावनात्मक रूप से मनुष्य का जो भी व्यवहार है उसके मूल में उसके अन्दर वचपन से स्थापित मान्यताएँ ही होली हैं। अधिकांश मान्यताएँ व्यक्ति के बचपन में ही स्थापित हो जाती हैं और जीवनपर्यन्त बनती नवगड़ती रहती हैं। सामान्यतया टूटती या विगड़ती बहुत कम ही है परन्तु जैसे-जैसे व्यक्ति का शैक्षिक स्तर बढ़ता है, परिवेश बदलता है। अन्य लोगों से सम्पर्क स्थापित होता है, वैसे-वैसे स्थापित मान्यताएँ बनती और बिगड़ती रहती हैं। अतः किसी भी व्यक्ति का बचपन बहुत की महत्वपूर्ण समय होता है जो भावी जीवन की भावनाएँ एवं व्यवहार निर्धारित करता है।
किसी व्यक्ति की सोच उसकी भावनाएँ निर्मित करती हैं। जिस व्यक्ति की भावनाएं जैसी होंगी उसकी सोच भी उसी के अनुरूप होगी। सोच ही व्यक्ति के भविष्य का निर्माण करती है। जिस व्यक्ति की सोच जितनी परिष्कृत होगी उस व्यक्ति का कार्य-व्यवहार भी उतना ही समृद्ध और परिष्कृत होगा जऔर जिस व्यक्ति का कार्यव्यवहार जितना संतुलित होगा उसके विकसित होने की संभावनाएं भी उतनी ही अधिक होंगी। अतः कार्यव्यवहार के संतुलन के लिए व्यक्ति के सोच का संतुलित होना आवश्यक है। सोच के विकसित होने के लिए व्यक्ति के भावनाओं का समृद्ध होना आवश्यक है और पावनाओं की समृद्धि हेतु व्यक्ति की मान्यताओं का शुद्ध होना आवश्यक है। मन, बावनाएँ, मान्यताएँ, सोच, कार्यव्यवहार अपने आप में अत्यन्त जठिन विषय है। इनकी व्याख्या कर पाना मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिये सम्भव नहीं है, फिर भी मित्रों की भावनाओं का सम्मान करते हेतु इस पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने हैं। इसलिए पाठकों से अनुरोध है कि इन विचारों को पढ़े, समझें और यदि उनके तर्क की कसौटी पर खरी उत्तरे तो ही अमल में लाने का प्रयास करें।
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