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सत्ता, समाज और हम

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“सत्ता समाज और हम” ने इतिहासी घटनाओं, समकालीन मुद्दों, और मानव व्यवहार के सूक्ष्म विश्लेषण के माध्यम से, शक्ति और समाज के बीच के जुटाव की समझ को विवेचित रूप में प्रस्तुत किया है। विद्यानंद की कथानायिका तेज और विचारशील है, शक्ति के तंत्र, सामाजिक वर्गसंरचना के गतिविधियों, और इन शक्तियों के व्यक्तिगत जीवन पर प्रभाव को प्रकाश डालती है।

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सत्ता, समाज और हम
Published:
Author: Divyanand

सत्ता, समाज और हम एक मूल्यांकन

'सत्ता, समाज और हम' में विद्यानन्द जी के 13 लेख संकलित हैं जो अपने शीर्षक को चरितार्थ करते हुए सत्ता, समाज और 'हम' पर केन्द्रित हैं। इस 'हम' का दायरा बहुत विशाल है और रचनाकार ने अपने आलेखों में इसका ख्याल रखा है। पहला लेख कोरोना त्रासदी पर है और उन गरीब मज़दूरों और उनके परिवारों की त्रासदी को चित्रित करता है जो रोज़ी-रोटी की तलाश में अपने घर से दूर महानगरों में समा गये और जब कोरोना ने भारत में पैर पसारना शुरू किया तो किस तरह यह परिवार महामारी के खौफ और रोज़गार छिन जाने की आशंका से अपने घर लौटने को मजबूर हुए। जो भाग्यशाली थे उन्हें तो कोई न कोई साधन मिल गया लेकिन एक बड़ी संख्या ऐसी थी जिसका धैर्य जवाब दे गया और वह अपने परिवार के साथ हज़ारों किलोमीटर दूर पैदल ही लौटने को मजबूर हो गये। इस भयानक मंज़र के साक्षी हम सब रहे हैं। इन परिस्थितियों को मद्देनज़र लेखक का कहना है कि जिन परिस्थितियों में वे पलायन को मजबूर हुए हैं और जिन त्रासदियों से गुज़र कर वे अपने घरों तक पहुंचे हैं वे दोबारा वापस होने के बारे में सोच भी नहीं सकते। यहाँ लेखक का भोलापन ज़ाहिर होता है। हकीकत तो यह है कि सभी सम्भावनाओं को नकारते हुए, स्थिति ठीक होते ही धीरे-धीरे यह मज़दूर पुनः शहरों की ओर लौटने लगे। सोनू सूद जैसी शख्सियतों और अनेक समाजसेमी संस्थाएँ भी यह देख कर स्तब्ध रह गई। ज़ाहिर है कि गाँव में वापस आने पर उनके रोज़गार की समस्या हल नहीं हुई और भूख ने उन्हें पुनः शहर की ओर भेज दिया।

रचनाकार ने भी स्वीकार किया है कि समाज में शान्ति और स्थिरता के लिये रोज़गार के अधिक से अधिक अवसर पैदा करने की आवश्यकता है। महसूस तो सब कर रहे हैं लेकिन हो कुछ नहीं रहा है और सारी योजनाएँ काग़ज़ तक सीमित रह जाती हैं। जो धरातल पर आती भी हैं उनमें लालफीताशाही से जूझना पड़ता है।

संकलन का दूसरा लेख एक आदर्श वाक्य से शुरू होता है। रचनाकार के अनुसार भीड़ का भ्रमित होना राजनीति की पहली शर्त है। पूरा लेख भीड़ के इसी भ्रम को विवेचित करता है। सोशल मीडिया द्वारा किसी व्यक्ति या दल को आसानी से मसीहा बना देने की स्थिति से भी रचनाकार सचेत करता है। एक सवाल काफी लम्बे समय से राजनीतिक विश्लेषकों को परेशान करता रहा है कि भीड़ वास्तव में वोट में बदलती है कि नहीं। हर चुनाव के बाद राजनीतिक दल और विश्लेषक हार-जीत के कारणों पर विमर्श करते दिखाई देते हैं। भारतीय वोटरों ने हमेशा ही चौंकाने वाले परिणाम दिये हैं और यही बात हमारे लोकतंत्र को ज़िन्दा रखे हुए है।

तीसरा लेख 'होली' पर है। इसमें होली के पौराणिक और सामाजिक पहलुओं पर बात की गई है। इससे पूर्व के दो आलेखों और बाद के आलेखों की विषयवस्तु देखते हुए लगता है कि भारतीय पर्व और त्यौहारों पर लेखक की एक अलग पुस्तक आनी चाहिये।

चौथा लेख एक ज्वलन्त समस्या 'मॉब लिचिंग' पर है। लेख के शीर्षक में इसे समस्या या साज़िश कहा गया है। मॉब लिंचिग पर समाज की एकतरफा सोच से रचनाकार द्रवित दिखाई देता है और उदाहरण देकर बताता है कि किस प्रकार 28 इंसानों की भीड़ द्वारा की गई हत्या पर लोग चुप्पी साध कर बैठ गये। रचनाकार भारतीय समाज की संवेदना पर सवाल उठाता है। जिन बिन्दुओं पर विस्तृत चर्चा की गई है, वास्तव में वे झकझोरते हैं। बचपन से ही अच्छे संस्कार न डालने का समाज को क्या परिणाम भुगतना पड़ता है, यह बात भी बहुत सहज ढंग से कही गई है। लेखक ने न केवल अपनी बात कही है बल्कि अपने तथ्यों के समर्थन में आँकड़े भी पेश किये हैं। लागत और उत्पादन का उदाहरण देकर कहा गया है कि कृषि उपज से सामान्य जीवनयापन करना असम्भव है। नौकरियाँ हैं नहीं ऐसे में निराशा और हताशा बढ़ना स्वाभाविक है। यह निराशा समाज में आक्रोश के रूप में बढ़ती ही जा रही है।

पाँचवें लेख का शीर्षक चौंकाता है। लेखक ने भारत को लोकतांत्रिक राजशाही का देश कहा है। यह लेख अपेक्षाकृत छोटा है। इसमें लेखक ने कहा है कि भारतीय जनमानस सिर्फ नेतृत्व चयन में ही नहीं वरन विचारधारा चयन में भी व्यक्तिवाद को प्राथमिकता देता है और अपने नेता एवं महापुरुष के आगे सभी अन्य नेताओं और महापुरुषों को तुच्छ समझता है। भारतीय लोकतंत्र पर इतनी सटीक टिप्पणी लेखक की सोच को परिभाषित करती है।

संकलन के छठवें लेख में वर्तमान परिदृश्य में समाजवाद की चुनौतियों और सम्भावनाओं पर केन्द्रित है। इस गूढ़ विषय पर भी रचनाकार ने पैनी निगाह डाली है। लेखक ने बड़ी बेबाकी से कहा है- वर्तमान में आरक्षित वर्ग का नौकरी पाचा व्यक्ति यही सोचता है कि उसकी अगली पीढ़ी को भी नौकरी ही मिले। यह व्यवसाय, उद्योग के बारे में नहीं सोचता और न ही सामान्य वर्ग से सीट हासिल करने के बारे में सोचता है। यहाँ लेखक की हिम्मत की दाद देनी पड़ती है कि जिस विषय पर लोग अपनी राय ज़ाहिर करने से बचते हैं, उस पर रचनाकार निःसंकोच अपनी बात कहता है।

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पूरी किताब Original price was: ₹325.00.Current price is: ₹12.00.
कोरोना त्रासदी का ग्रामीण भारत Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹1.00.
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लोकतांत्रिक राजशाही का देश भारत Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹1.00.
वर्तमान परिदृश्य में समाजवाद :चुनौतियाँ और संभावनाएँ Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹1.00.
सत्ता, कानून और व्यवस्था Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹1.00.
सुनहरे कल की खामोश दस्तक Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹1.00.
विवाह Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹1.00.
रमजान का महीना और अफ्तार की दावतें Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹1.00.
दीपावली Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹1.00.
नवरात्रि Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹1.00.
कतरन Original price was: ₹25.00.Current price is: ₹1.00.

“सत्ता समाज और हम” जिसे विद्यानंद ने लिखा है, शक्ति, समाज, और व्यक्ति के बीच के जटिल गतिविधियों का रोचक अन्वेषण है। इस दृष्टिपरक पुस्तक में, विद्यानंद सत्ता व्यवस्था, समाजिक संरचनाओं, और इन ढांचों के अंदर व्यक्ति की भूमिका की गहन अध्ययन करते हैं।

 

Book Chapters

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