संवेदना के स्वातन्त्र्य का महोत्सव
तमन्ना-ए-जिन्दगी प्रतिष्ठित एवं अतिसंवेदनशील लेखक विद्यानन्द के फुटकर शेरों का संकलन है। संवेदना की प्रवृत्तियों के आधार पर उन्होंने अपने शेरों का वर्गीकरण किया है जो क्रमशः उम्मीद, हौसला, ज़िन्दगी, गुमान, फर्ज, दूरियाँ, हलाल, बहार, कुदरत, ज़माना, अदा, नज़र, मुहब्बत, हशरत, नसीब, यकीन, तसल्ली, जज़्बात, दिल, मज़ाक, मतलब, याद, रुसवाइयाँ, सियासत, दुआ, एकतरफा इश्क, वक्त, किस्मत, इन्तजार और ग़ज़ल के रूप में वर्गीकृत है। उर्दू के लगभग हर बड़े शायर गालिब, मीर, फैज अहमद 'फैज' आदि के दीवान के आखिर में फुटकर शेर मिलते हैं। इन फुटकर शेरों के सन्दर्भ में प्रायः यह माना जाता है कि अपनी संवेदनात्मक तीव्रता, नवता या अनूठेपन के चलते ये शेर ग़ज़ल में बँध नहीं पाये, इन फुटकर शेरों को मुकम्मल ग़ज़ल जैसा समादर प्राप्त है। विद्यानन्द के इन फुटकर शेरों को भी इसी दृष्टिकोण से लिया जाना चाहिए। इन्हें ग़ज़ल में पिरोने का कोई आग्रह नहीं है। वैसे गुजल के प्रत्येक शेर अपनी वैचारिकी में स्वतन्त्र होते हैं। काफिया, रदीफ के निर्वाह एवं मिजाज के अनुसार वे एक गजल में आबद्ध होते हैं। विद्यानन्द के इन शेरों में ज़िन्दगी की तमन्ना बड़ी शिद्दत से चरितार्थ हुई है। उन्होंने आत्मपरिसर एवं प्रकृति के परिसर के साथ संवेदना के लगभग हर रंग को पूरी जिम्मेदारी से इन शेरों में स्पर्श किया है जो उन्हें एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में प्रस्तुत करता है।
गर न रहूँ मैं तो इतना सा जतन कर देना
मुझे मेरे गाँव की मिट्टी में दफन कर देना
यह शेर विद्यानन्द के अपने गाँव के प्रति अनन्य अनुराग को प्रकट करता है। लाख विस्थान, हजारों यात्राओं के बाद विद्यानन्द अपना अन्त अपने गाँव की मिट्टी में चाहते हैं; यही उनकी तमन्ना-ए-ज़िन्दगी है। जन्मभूमि के प्रेम को प्रकट करते हुए राम भी लक्ष्मण से कहते हैं कि जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर होती है-
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।
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